प्राथमिकताएं तय करना आसान नहीं हैं, व्यकितगत स्तर पर अपेक्षाकृत शायद आसान हो, पर बड़े सन्दर्भों खासकर राष्ट्रीय नीतिगत सन्दर्भों में तो मुश्किल है.
क्या एक राष्ट्र आधारभूत आवश्यकताओं के चलते अन्य कार्यों में समान्तर हाथ डाले या न डाले? क्या लोगों की दैनन्दिनी की जरूरतों को पूरा किये जाने तक अन्य प्रगतिवादी, वैज्ञानिक प्रगति को रोके रखना चाहिए? क्या अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के सार्थक समुचित विकास के लिए पहले सारी धनराशि मुहैया करनी चाहिए ताकि जब वे एक सम्मानजनक स्तर तक पहुँच जाये तब उपलब्ध धन राशि दूसरे मदों में खर्च की जानी चाहिए, क्या ऐसा करने से समुचित विकास की गति धीमी पड़ जाएगी? क्या इससे राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों की तुलना में पिछड़ जायेगा?
आज़ादी के इतने वर्षों के बाद भी बीमारियों की महामारी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहीं हैं, तपेदिक, आंत्रशोथ, मलेरिया, हेपेटाइटिस, डेंगू, टाइफाइड इत्यादि अनेकों बीमारियां हमारे अस्वच्छ पर्यावरण और अशुद्ध पीने के पानी की देन हैं. देश का ४८% बचपन कुपोषण का शिकार है, उन्हें पर्याप्त पौष्टिक आहार उपलब्ध नहीं है. २०% से अधिक बच्चों की लम्बाई उनके वजन के लिए भी कम है. क्या राष्ट्र की इस धरोहर के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए पूरी ताकत और धन झोंक देना चाहिए या फिर हमारे स्रोतों को अनेकों हिस्सों में विभाजित करके सब तरफ थोड़ा थोड़ा विकास करना चाहिए, क्या राष्ट्र की अनेक पीढ़ियां उनके नैसर्गिक विकास के लिए प्रतीक्षा करती रहें ताकि हम चन्द्रमा पर जा संके, विश्व की तुलना में कम खर्च पर मंगल ग्रह पर जा सकें? किसका इंतज़ार ज्यादा लम्बा होना चाहिए वैज्ञानिक उत्कृष्टता का या विकसित होते मष्तिष्क का? क्या चल सकने वाले पैरों में ताकत और बल ज्यादा जरूरी है या बुलेट ट्रेन? क्या झुग्गी झोपड़ियों की मानवता सम्मत जिंदगी जरूरी है या स्मार्ट सिटी की परिकल्पना? क्या सरकारी शालाओं में आधारभूत शिक्षा आवश्यक है या डिजिटल भारत? तर्क हो सकते हैं की दोनों क्यों नहीं? दोनों साथ साथ क्यों नहीं? बहुत आदर्श होगा ऐसा हो पाना, पर ६८ वर्ष के राष्ट्र के अनुभव इस आदर्श स्थिति को झुठला रहे हैं, हम हर किसी क्षेत्र में काम चलाऊ उपलब्धियों से काम चलाने के आदी हो गए हैं.
पिछले दिनों दो उत्कृष्ट कवियों की फ़िल्मी ही सही, दो कविताओं ने अभिभूत कर दिया, सालों से मन उनके प्रभाव से विचलित हो जाता है, बस एक अहसास जीवित रह जाता है, सही गलत की प्राथमिकताएं धुँधली पड़ जाती हैं, विकास की प्राथमिकताओं में मन उलझ कर रह जाता है.
एक गीत साहिर का है
ज़िन्दगी सिर्फ मुहब्बत नहीं कुछ और भी है
ज़ुल्फ़ -ओ -रूकसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में
इश्क़ ही एक हक़ीक़त नहीं कुछ और भी है
तुम अगर आँख चुराओ तो ये हक़ है तुमको
मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मुहब्बत की है
तो क्या सबके दर्द बांटने तक मोहब्बत को इंतज़ार कराना जायज़ है? क्या फिर बहुत देर नहीं हो जाएगी?
या फिर इतना दर्द समेटे दिल से सुकून वाली मोहब्बत क्यूँकर की जाएगी? क्या ये अपने आप से बेईमानी नहीं होगी?
प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? मेरी मोहब्बत या सबके लिए मोहब्बत?
दूसरी कालजयी कविता नीरज की है
पर ठहर वो जो वहाँ लेटे हैं फुटपाथों पर
लाश भी जिनकी कफ़न तक न यहां पाती है
और वो झोंपड़े छत भी न है सर पर जिन के
छाते छप्पर ही जहां ज़िन्दगी सो जाती है
पहले इन सब के लिए एक इमारत गढ़ लूँ
फिर तेरी मांग सितारों से भरी जायेगी
मन बहुत व्यथित है, क्या दुश्वार मंज़िल हमेशा चलने के लिए मजबूर करती रहेगी?
कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए
लगता है सफर ही इस राष्ट्र की नियति है, बिना मील के पत्थर का सफर.
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है, कहाँ है कहाँ हैं…
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