पालक अक्सर एक बहस में उलझे रहते हैं कि अपने बच्चों के भविष्य में हमें दखलंदाज़ी करनी चाहिए या नहीं? बहुत से माता पिता अपने बच्चों में अपना विस्तार देखते हैं, अपनी अधूरी ख्वाहिशों को मुकम्मल करने का एक मौका तलाशते हैं उनमें. क्या यह सोच अपनी भविष्य की अनिश्चितता की उपज है या इसमें कही स्वार्थ भी छुपा है? क्या यह अपेक्षा पूर्णतया सही है कि बच्चे बड़े हो कर हमारे काम आएं, हमारे साथ रहें, बीमार पड़ने पर देखभाल करें, बुढ़ापे में हमें सहारा दें, चाहे काम आने की प्रक्रिया उनके अपनी प्रगति के रास्ते की रुकावट ही क्यों न बन जाये? हम बहुत मेहनत से अपने बच्चों को तराशते हैं ,उनके पंखों को संवार के उन्हें परवाज़ के लिए तैयार करते हैं ख़ुले आसमान से उनका परिचय कराते हैं, उड़ान की बारीकियां उन्हें समझाते हैं, खतरों से आगाह करते हैं, बचाव के तरीके समझाते हैं, और फिर क्या इस फिक्र में कि उन्हें आसमान की आदत लग जाएगी, वे लौट कर अपने आशियाने पे नहीं आएंगे , एक नया घोंसला तलाश लेंगे, हम उनके पंख कुतरने की जुगत में लग जाएँ ? परवाज़ के लिए एक उन्मुक्त आकाश के लिए तैयार करके हम क्यों उनकी उड़ान से विचलित होने लगते हैं?
हम बकौल ग़ालिब इस बात में यकीं करते हैं कि
“उड़ने दे इन परिंदो को आज़ाद फ़िज़ा में ग़ालिब
जो तेरे अपने होंगे वो लौट आएंगे किसी रोज़.”
पढ़ा लिखाकर हम सा इंसान बनाना है या फिर हमसे बेहतर? क्या पढ़ाने का एक उद्देश्य स्वतंत्र सोच वाले एक व्यक्तित्व का विकास है या एक सी सोच वाले अनेक व्यक्ति? क्या हम उद्योगों की तरह एक सांचे में ढले व्यक्तियों का " उत्पादन" करना चाहते है या लीक से हटकर कुछ अलग, नवीन और बेहतर? मैंने कई चिकित्सक साथियों को अपने नर्सिंग होम्स की चिंता में अपने बच्चों की रूचि के बग़ैर उन्हें निजी चिकित्सा महाविद्यालयों से डॉक्टर बनाते देखा है, इनमे से बहुत से बच्चे अनमने डॉक्टर्स बन जाते हैं. वे ताउम्र अन्यमनस्क से काम करते रहते हैं.
बहुत से पालक इस बात पर गौरवान्वित होते हैं कि उनका बच्चा प्रतिवाद नहीं करता, उनका हर कहा मानता है, कभी बहस भी नहीं करता! मेरी सोच इस से अलहदा है, क्या हमारा गर्व या अभिमान एक व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास में सहायक हो रहे हैं?
पढ़कर बच्चा अपना नजरिया बनाता है, हो सकता है उस सोच का विकास उसे हमसे दूर ले जाये, क्या वृद्धावस्था में हमारी शारीरिक और भावनात्मक आवश्यकताएं उसके मार्ग की बेड़ी बन जाये? मैं सोच कर देखता हूँ तो मुझे यह सोच स्वार्थ जनित सी प्रतीत होती है, अपने व्यक्तिगत सुख और आराम के लिए हम कैसे एक सोच, एक व्यक्तित्व, एक विकास और प्रतिभा को अवरुद्ध कर सकते हैं? निशक्त करता बुढ़ापा और उस से जुडी भावनात्मक दुर्बलताएँ सहारा तलाशते हैं, ये सहारा जरूरी भी है, यह सच है कि हम अपने घोसलों में उन्हें निरंतर ढूंढते रहते हैं, उनकी कमी हमें सतत खलती रहती है, उनके उनके साथ बिताये हर पल को पुनर्जीवित करके हम अनेकानेक बार जीते हैं, हमेशा उन क्षणों को हम दुलारना चाहेंगे, उनमे जीना चाहेंगे. निस्संदेह ये हमारी धरोहर हैं, पर ये हमारी शक्ति बनने चाहिए, कमज़ोरी नहीं.
हम से दूर रह कर हमारे बच्चे अगर अपनी विधा के शिखर पर बैठे सर्वश्रेष्ठ लोगों से कन्धा मिला कर सबसे बेहतर करने का प्रयास कर रहें हैं तो व्यक्तिगत तौर पर मुझे बहुत बड़ी उपलब्धि लगती है. क्या साथ रहना इस बात को सुर्निश्चित करता है कि भविष्य में वे हमारे काम आएंगे, क्या लोग एक छत के नीचे अजनबियों जैसे नहीं रहते, क्या साथ रहने पर संबंधों में मधुरता हमेशा बरक़रार रहती है? क्या नजदीक रहते हुए बनी दूरियां ज्यादा सालती हैं या दूर रहकर कायम समीपता ज्यादा सुखकर होती है?
इक़बाल का जवाब ग़ालिब को कुछ इस अंदाज़ में:
न रख उम्मीद –ए –वफ़ा किसी परिंदे से इक़बाल
जब पर निकल आते हैं, तो अपना भी आशियाना भूल जाते है!
ग़ालिब के शेर में मुझे इक उलझन लगती है कि क्या जो लौट कर नहीं आते वो अपने नहीं होते? और इक़बाल के बयां में एक व्यंगोक्ति कि जिनके "पर निकल आते" हैं वो वो भूल जाते हैं. सच्चाई शायद दोनों ही दृष्टिकोणों से भिन्न है!
Great. Very true statement. Liked .
ReplyDeletebahut sahi kaha,sirji
ReplyDeleteअगर सब लौट आते तो मात्र आफ्रिका में ही जीवन होता, नई दुनिया 🌍 विरान होती। Let's not think of becoming dragging past for our children, let them be free to fly to newer shores and beyond.
ReplyDeleteपालक अपने बच्चों के लिए जो भी सोचते और करते हैं हर हमेशा सही और सच्चा ही होता है ये तो हालत होते हैं जो निश्चित करते हैं कि हम कहाँ गलत थे अपना अपना अनुभव है !ग़ालिब औ र इक़बाल कुछ भी कहें मैं जिस शहर में रहता हूँ वहां इस विषय पर वाद विवाद चलता ही रहता है!कभी एक सही लगता है तो कभी दूसरा -मैं ये सोचता हूँ जो पालक व् बच्चों में किसी एक को भी दुःख देता है वो निःसंदेह गलत है बहरहाल पास रह कर दूर रहने से तो दूर रहकर पास रहना ही अच्छा है!फिर भी सच्चाई शायद दोनों ही दृष्टिकोणों से भिन्न ही है !किसी ने ठीक ही कहा है हर सिक्के के दो पहलू होते हैं!
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